जन्म और मृत्यु अटल सत्य हैं, इन्हें सिक्के के दो पहलू कहा जाना भी गलत नहीं है। जन्म के बाद मृत्यु होना निश्चित है और मृत्यु के बाद शरीर त्यागकर आत्मा का दूसरे शरीर में प्रवेश कर पुन: जन्म लेना भी निर्धारित है
कहते हैं आत्मा एक बार जिस शरीर को छोड़ देती है, उसमें पुन: प्रवेश नहीं करती। वह अपने लिए एक नए शरीर की तलाश करती है। इसलिए मृत्यु के बाद किसी का वापस लौटकर आना संभव नहीं है, कम से कम उस शरीर में तो नहीं जिसे आत्मा पहले ही त्याग चुकी है।
लेकिन ईश्वर के चमत्कार के आगे प्रकृति को भी झुकना ही पड़ता है। जन्म और मृत्यु, इन दोनों पर ईश्वर का अधिकार है और ईश्वर चाहे तो वह प्रकृति के उस नियम को भी तोड़ सकता है जो मृत्यु के बाद व्यक्ति के पुन: जीवित होने से जुड़ा है।

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अगर हम आपसे ये कहें कि मृत्यु के बाद भी लोग जीवित हो सकते हैं, तो आपको ये मजाक से ज्यादा और कुछ नहीं लगेगा। लेकिन एक स्थान ऐसा है जहां अगर शव को लेकर जाया जाए तो आत्मा उस शव में पुन: प्रवेश कर जाती है।
उत्तराखंड एक बेहतरीन पर्यटक स्थल तो है ही लेकिन ये अपने आध्यत्मिक महत्व के लिए भी जाना जाता है। उत्तराखंड की राजधानी, देहरादून से कुछ दूरी पर लाखामंडल नामक स्थान है।

इसके विषय में माना जाता है कि महाभारत काल में पांडवों को जीवित आग में भस्म करने के लिए उनके चचेरे भाई कौरवों ने यहीं लाक्षागृह का निर्माण करवाया था।
ऐसी मान्यता है कि अज्ञातवास के दौरान इस स्थान पर स्वयं युधिष्ठिर ने शिवलिंग को स्थापित किया था। इस शिवलिंग को आज भी महामंडेश्वर नाम से जाना जाता है।
जहां युधिष्ठिर ने शिवलिंग स्थापित किया था वहां एक बहुत खूबसूरत मंदिर बनाया गया था। शिवलिंग के ठीक सामने दो द्वारपाल पश्चिम की तरफ मुंह करके खड़े हुए दिखते हैं।
ऐसी मान्यता है कि अगर किसी शव को इन द्वारपालों के सामने रखकर मंदिर के पुजारी उस पर पवित्र जल छिड़कें तो वह मृत व्यक्ति कुछ समय के लिए पुन: जीवित हो उठता है।


जीवित होने के बाद वह भगवान का नाम लेता है और उसे गंगाजल प्रदान किया जाता है। गंगाजल ग्रहण करते ही उसकी आत्मा फिर से शरीर त्यागकर चली जाती है।
लेकिन इस मंदिर के पीछे दो द्वारपाल स्थित हैं, जिनमें से एक का हाथ कटा हुआ है। अब ऐसा क्यों हैं यह बात आजतक एक रहस्य ही बना हुआ है।
यहां पर स्थित शिवलिंग मृत व्यक्ति को तो जीवित करता ही है लेकिन इसकी एक और महिम है ।
महामंडलेश्वर शिवलिंग के विषय में माना जाता है कि जो भी स्त्री, पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से महाशिवरात्रि की रात मंदिर के मुख्य द्वार पर बैठकर शिवालय के दीपक को एकटक निहारते हुए शिवमंत्र का जाप करती है, उसे एक साल के भीतर पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।
लाखामंडल में बने इस शिवलिंग की एक अन्य खासियत यह है कि जब भी कोई व्यक्ति इस शिवलिंग का जलाभिषेक करता है तो उसे इसमें अपने चेहरे की आकृति स्पष्ट नजर आती है।
स्थानीय लोगों का मानना है कि यहां आने वाला कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौटता, भगवान महादेव अपने दर पर आने वाले भक्तों की मनोकामना अवश्य ही पूरी करते हैं। यहां पर आकर भगवान शिव की आराधना करने से समस्त पापों का नाश होता है।
शिवलिंग की महिमा के विषय में तो हम सभी जानते हैं। लेकिन कभी आपने इस बात की ओर ध्यान दिया है कि आखिर शिव के प्रतीक के रूप में शिवलिंग की पूजा करने का सिलसिला कब और कैसे शिरू हुआ?
इसका जवाब लिंग महापुराण में मिलता है। एक बार भगवान ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर विवाद हो गया। दोनों में यह बहस छिड़ गई कि कौन सबसे श्रेष्ठ है।
इस बहस में वे एक दूसरे का अपमान तक करने लगे, जब यह विवाद बढ़ गया तब अग्नि की ज्वाला से लिपटा हुआ एक स्तंभ उन दोनों के बीच आकर स्थित हो गया।
दोनों में से कोई भी इसका रहस्य नहीं समझ पा रहे थे। वह उस अग्नि स्तंभ की शुरुआत और अंत का पता लगाने की कोशिश करने लगे जिसमें दोनों को ही हार का सामना करना पड़ा।

लिंग के स्रोत का पता लगाने के लिए ब्रह्मा जी आगे बढ़े लेकिन उन्हें कुछ हाथ नहीं लगा और उसके अंत का पता लगाने के लिए विष्णु जी ने बहुत प्रयत्न किए लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा।
हार कर वे दोनों वापस वहीं पहुंच गए जहां सर्वप्रथम उन्होंने लिंग को देखा था। उस लिंग में से ॐ की ध्वनि आ रही थी। ब्रह्मा जी और विष्णु जी समझ गए कि यह शक्ति है और वे स्वयं ॐ की आराधना करने लगे।
उनकी आराधना से भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए और दोनों देवों को सद्बुद्धि का वरदान दिया। इसके बाद भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। लिंग महापुराण के अनुसार यह भगवान शिव का पहला शिवलिंग था।
इस लिंग के स्थापित होने के बाद स्वयं भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी ने शिवलिंग की पूजा की थी। यही शिवलिंग के उद्भव और उनकी पहली बार पूजा की जाने की कहानी है।
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